बहुत लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय संबंधों को देशों की संप्रभुता, सैन्य ताक़त और आर्थिक दबदबे जैसे स्तंभों ही आकार देते रहे हैं. इसमें अक्सर संघर्ष के बारीक़ और लैंगिकता पर आधारित आयामों को हाशिए पर धकेल दिया जाता है. महिलाएं और ख़ास तौर से वो औरतें जो कमज़ोर समुदायों से ताल्लुक़ रखती हैं, वो मोटे तौर पर शांति, कूटनीति और सुरक्षा संबंधी वार्ताओं में नज़र नहीं आती हैं. महिलावादी अंतरराष्ट्रीय संबंध (IR) का विचार इस संकुचित नज़रिए को चुनौती देते हुए इस बात पर ज़ोर देता है कि सुरक्षा सिर्फ़ सैन्य शक्ति और इलाक़ाई नियंत्रण के आधार पर ही परिभाषित नहीं हो सकती. महिलावादी विदेश नीति सुरक्षा पर एक नया दृष्टिकोण अपनाने की मांग करता है. एक ऐसा नज़रिया जिसमें संघर्ष वाले क्षेत्रों में फंसी महिलाओं की आवाज़ बुलंद की जाती है, जिनकी अक्सर अनदेखी हो जाती है. इसके साथ ही ये विचार ये मांग करता है कि कूटनीति में समानता, इंसाफ़ और लोगों की बेहतरी को प्राथमिकता दी जाए. 2014 में स्वीडन वो पहला देश बना था जिसने महिलावादी विदेश नीति को लागू की थी; इसके बाद अर्जेंटीना, कनाडा, चिली, कोलंबिया, फ्रांस, जर्मनी, लीबिया, लग्ज़ेमबर्ग, मेक्सिको, नीदरलैंड्स, स्कॉटलैंड, स्पेन और स्लोवेनिया जैसे कई देशों ने अपने कूटनीतिक और अंतरराष्ट्रीय नीति के एजेंडे में महिलाओं के प्रति संवेदनशील नज़रियों को शामिल किया है. इस समूह में लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों को शामिल किया जाना ये दिखाता है कि महिलावादी विदेश नीति (FFP) अब ऐसा अनूठा चलन नहीं है, जो केवल ग्लोबल नॉर्थ या विकसित देशों तक ही सीमित है. हालांकि, कुछ लोगों को अभी भी इस बात की फ़िक्र है कि ऐसी नीतियां वैश्विक स्तर पर ऊंच-नीच के मौजूदा दर्जों को और ताक़तवर बनाएंगी. भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस. जयशंकर ने अगस्त 2021 में ‘लैंगिक रूप से संतुलित’ विदेश नीति की ज़रूरत को स्वीकार करते हुए कहा था कि, ‘मैं इस बात से सहमत हूं कि हमें दुनिया को महिलाओं के नज़रिए से देखने की ज़रूरत है. हमें लैंगिक रूप से संतुलित विदेश नीति बनाने की आवश्यकता है’. 2023 में G20 में भारत की अध्यक्षता एक निर्णायक लम्हा साबित हुई, जिसमें महिलाओं पर केंद्रित नीति निर्माण और वैश्विक प्रशासन में महिलाओं की अधिक भागीदारी वाले नज़रिए को बढ़ावा देने के विचार को नए सिरे से परिभाषित किया गया था.
महिलावादी विदेश नीति के केंद्र में ये यक़ीन है कि वैश्विक राजनीति में महिलाओं की भूमिका निजी क्षेत्र से कहीं आगे बढ़कर है; महिलाएं सार्वजनिक और राजनीतिक क्षेत्रों के लिहाज से भी अहम हैं. महिलावादी अंतरराष्ट्रीय नीति (IR) इस बात पर ज़ोर देती है कि शांति और सुरक्षा का मतलब केवल संघर्ष का ख़ात्मा नहीं है. बल्कि, इसके दायरे में इंसाफ़ का व्यापक दृष्टिकोण भी आता है. ऐसा दृष्टिकोण जिसमें संस्थागत असमानताओं के ढांचे को ध्वस्त किया जाता है और उन सामाजिक और आर्थिक ताक़तों का मुक़ाबला किया जाता है, जो संघर्ष को निरंतर बढ़ाते रहते हैं. सत्ता, सुरक्षा और कूटनीति के विश्लेषण में लैंगिकता के नज़रिए को शामिल करके महिलावादी अंतरराष्ट्रीय नीति निर्णय प्रक्रिया और ख़ास तौर से शांति व्यवस्था के निर्माण और संघर्ष के बाद बहाली जैसे क्षेत्रों में महिलाओं की राय शामिल करने पर ज़ोर देती है. महिलावादी विदेश नीति इसी रूप-रेखा का एक विस्तार है, जिसमें एक ऐसी विदेश नीति अपनाने पर ज़ोर दिया जाता है जो मानव अधिकारों, महिलाओं के लिए न्याय और महिलाओं की सक्रिय भागीदारी पर केंद्रित हो, ख़ास तौर से दक्षिण एशिया जैसे संघर्ष के शिकार इलाक़ों में. भारत विमेन्स पीस ऐंड सिक्योरिटी एजेंडा को नहीं अपनाने के फ़ैसले का ये कहकर बचाव करता है कि ये एजेंडा, ‘भारत के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं था’. जबकि इस एजेंडे में ऐसे कई क्षेत्र शामिल हैं जो अंदरूनी संघर्ष के शिकार हैं और जहां फौज भारी तादाद में मौजूद है. इस मंज़र में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 1325, महिलावादी विदेश नीति और संघर्ष के शिकार और संघर्ष के बाद बहाली वाले इलाक़ों के संदर्भ में बहुत अहम भूमिका निभाता है. वैसे तो भारत संयुक्त राष्ट्र और दूसरे वैश्विक मंचों पर मज़बूती से खड़ा हो रहा है. लेकिन, हम इस बारे में सोच कर सकते हैं कि उसके ये तौर तरीक़े स्थानीय चुनौतियों से निपटने के साथ साथ किस तरह अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से मेल खाएं.
कश्मीर: एक केस स्टडी
कई दशकों से हिंसक संघर्ष के शिकार कश्मीर के मामले में महिलावादी विदेश नीति एक बिल्कुल नई राह दिखाने वाली है. कश्मीर में संघर्ष केवल इलाक़ाई विवाद या संप्रभुता भर का नहीं है; इसमें देश के तमाम तबक़े भी भागीदार हैं. ये एक मानवीय संकट है जिसका महिलाओं पर तुलनात्मक रूप से कहीं ज़्यादा बोझ पड़ रहा है.
कश्मीर के संघर्ष ने ख़ास तौर से महिलाओं को गहरे घाव दिए हैं. महिलाओं ने हिंसा और भारी तादाद में सैन्य तैनाती को झेला है. संघर्ष की वजह से कश्मीर की महिलाओं को यौन हिंसा और टॉर्चर झेलना पड़ा है और साथ ही साथ उन्हें मर्दवादी समाज का तोड़ डालने वाला दबाव भी झेलना पड़ा है, जो उनकी हस्ती का गला घोंटता है. किसी भी संघर्ष में यौन हिंसा, जंग के एक पहलू से कहीं अधिक है; ये एक सोचा-समझा हथियार होता है, जिसका इस्तेमाल पूरे समुदाय की इच्छाशक्ति को तोड़ने के लिए किया जाता है. अभी चल रहे संघर्ष की वजह से जो विस्थापन होता है, वो महिलाओं की चुनौतियों को और बढ़ा देता है. बहुत से परिवारों को अपने घरों को छोड़कर शरणार्थी शिविरों में पनाह लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इन शिविरों में महिलाओं के सामने हिंसा का शिकार होने का जोख़िम और बढ़ जाता है. अपने घरों, रोज़ी-रोटी और सुरक्षा से महरूम की गई महिलाओं के कंधे पर अक्सर परिवार को एकजुट ररखने और अराजकता के बीच थोड़ा बहुत आम ज़िंदगी का माहौल बनाए रखने की ज़िम्मेदारी आ जाती है. हालांकि, कश्मीरी समाज की पितृसत्तात्मक संरचना महिलाओं को इन भूमिकाओं को निभाने में कोई ख़ास सहयोग नहीं करती, जिससे वो और भी ज़्यादा हाशिए पर चली जाती हैं और अपने समुदायों के राजनीतिक और सामाजिक पुनर्निर्माण में उनका पूरी तरह से भाग ले पाना मुश्किल हो जाता है. इन बड़ी बड़ी चुनौतियों के बावजूद कश्मीरी महिलाओं ने ज़मीनी आंदोलन खड़े करके, नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर और शांति और न्याय की मांग करके अपनी असाधारण सहनशक्ति का प्रदर्शन किया है.
महिलावादी विदेश नीति की मांग है कि शांति निर्माण और संघर्ष के समाधान में महिलाओं की केंद्रीय भूमिका को स्वीकार किया जाए. पर, कश्मीर में महिलाओं को लंबे वक़्त से शांति प्रक्रियाओं और वार्ताओं से अलग रखा जाता रहा है. इन अहम मंचों से महिलाओं की ग़ैरमौजूदगी एक बड़े फ़ासले को दिखाती है. क्योंकि महिलाओं के जीवन के अनुभव किसी भी संघर्ष के बुनियादी कारण समझने और ऐसे समाधान तलाशने में बड़े अहम नज़रिए साझा करते हैं, जिनसे स्थायी रूप से शांति बहाल की जा सके.
यही नहीं, महिलावादी विदेश नीति ऐसे संरचनात्मक सुधार करने की अपील करती है जो सिर्फ़ संघर्ष रोकने के लक्ष्य से आगे जाते हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा अक्सर क्षेत्रीय विवाद और सैन्य दखलंदाज़ी पर ज़ोर देने से अक्सर उन सामाजिक और आर्थिक असमानताओं की अनदेखी हो जाती है, जो संघर्ष के शिकार क्षेत्रों में हिंसा को निरंतर बढ़ाते रहते हैं. महिलावादी विदेश नीति इस बात पर ज़ोर देती है कि शांति केवल हिंसा की ग़ैरमौजूदगी नहीं, बल्कि इसका मतलब इंसाफ़, समानता और मानवीय सुरक्षा की मौजूदगी भी है. कश्मीरी महिलाओं के लिए इसका मतलब सिर्फ़ हिंसा ख़त्म हो जाने से कहीं आगे का है; इसके तहत उनके समुदायों के पुनर्निर्माण के लिए एक व्यापक रूप-रेखा बनाने की मांग की जाती है. इसमें यौन हिंसा की तकलीफ से उबरने में मदद करना, पीड़ितों को क़ानूनी सहायता उपलब्ध कराना और उनको आर्थिक अवसरों, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच मुहैया कराना शामिल है, जो किसी शांतिपूर्ण, स्थिर और न्यायोचित समाज के बुनियादी तत्व हैं.
महिलावादी विदेश नीति की मांग है कि शांति निर्माण और संघर्ष के समाधान में महिलाओं की केंद्रीय भूमिका को स्वीकार किया जाए. पर, कश्मीर में महिलाओं को लंबे वक़्त से शांति प्रक्रियाओं और वार्ताओं से अलग रखा जाता रहा है. इन अहम मंचों से महिलाओं की ग़ैरमौजूदगी एक बड़े फ़ासले को दिखाती है. क्योंकि महिलाओं के जीवन के अनुभव किसी भी संघर्ष के बुनियादी कारण समझने और ऐसे समाधान तलाशने में बड़े अहम नज़रिए साझा करते हैं, जिनसे स्थायी रूप से शांति बहाल की जा सके.
यही नहीं, महिलावादी विदेश नीति ऐसे संरचनात्मक सुधार करने की अपील करती है जो सिर्फ़ संघर्ष रोकने के लक्ष्य से आगे जाते हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा अक्सर क्षेत्रीय विवाद और सैन्य दखलंदाज़ी पर ज़ोर देने से अक्सर उन सामाजिक और आर्थिक असमानताओं की अनदेखी हो जाती है, जो संघर्ष के शिकार क्षेत्रों में हिंसा को निरंतर बढ़ाते रहते हैं. महिलावादी विदेश नीति इस बात पर ज़ोर देती है कि शांति केवल हिंसा की ग़ैरमौजूदगी नहीं, बल्कि इसका मतलब इंसाफ़, समानता और मानवीय सुरक्षा की मौजूदगी भी है. कश्मीरी महिलाओं के लिए इसका मतलब सिर्फ़ हिंसा ख़त्म हो जाने से कहीं आगे का है; इसके तहत उनके समुदायों के पुनर्निर्माण के लिए एक व्यापक रूप-रेखा बनाने की मांग की जाती है. इसमें यौन हिंसा की तकलीफ से उबरने में मदद करना, पीड़ितों को क़ानूनी सहायता उपलब्ध कराना और उनको आर्थिक अवसरों, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच मुहैया कराना शामिल है, जो किसी शांतिपूर्ण, स्थिर और न्यायोचित समाज के बुनियादी तत्व हैं.
आगे का रास्ता
दक्षिण एशिया में, जहां संघर्षों की जड़ ऐतिहासिक शिकायतों और इलाक़ाई विवादों के जटिल जाल में है और वहां गहरी जड़ें जमाकर बैठे मर्दवादी नियमों को देखते हुए, वहां ऐसा नज़रिया एक दूरदर्शी विकल्प साबित हो सकता है. इस क्षेत्र में कश्मीर से लेकर अफ़ग़ानिस्तान और श्रीलंका तक जो संघर्ष चल रहे हैं, उनमें व्यापक स्तर पर महिलाओं के साथ हिंसा, विस्थापन और शांति प्रक्रिया से महिलाओं का अलग थलग होना देखने को मिलता है. महिलावादी विदेश नीति एक नया आयाम उपलब्ध कराती है. ऐसा नज़रिया जो लैंगिकता, सत्ता और संघर्ष के आपस में जुड़े जटिल समीकरणों को स्वीकार करता है.
भारत को चाहिए कि वो, महिलाओं की शांति और सुरक्षा (WPS) के एजेंडे के लिए एक नेशनल एक्शन प्लान (NAP) को विकसित करे, जो महिलावादी विदेश नीति और औरतों के प्रति संवेदनशील अंतरराष्ट्रीय संबंधों (IR) को संस्थागत बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम होगा. ख़ास तौर से कश्मीर जैसे क्षेत्रों में जहां संघर्ष के बाद बहाली ज़रूरी है, वहां ऐसी योजनाएं अपनाने का मतलब ये सुनिश्चित करना होगा कि शांति वार्ताओं में महिलाओं को भी शामिल किया जाए. इससे अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी ये प्रेरणा मिलेगी कि वो महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण में निवेश करे, जिससे ये सुनिश्चित हो सके कि उनके पास वो औज़ार और अवसर हों जिनसे वो अपने जीवन का पुनर्निर्माण कर सकें और अपने समुदायों के पुनर्गठन में योगदान दे सकें.
इसके अतिरिक्त महिलाओं को न्याय दिलाने और संघर्षों के समाधान पर ज़ोर देते हुए द्विपक्षीय और क्षेत्रीय कूटनीतिक संपर्कों को मज़बूत करने से सुरक्षा के समावेशी ढांचे के समर्थक के तौर पर भारत की भूमिका भी बढ़ेगी. कूटनीतिक और सुरक्षा की रणनीतियों में लैंगिकता के दृष्टिकोण शामिल करके भारत अधिक स्थायी शांति में योगदान दे सकता है.
महिलावादी विदेश नीति कोई सैद्धांतिक रूप-रेखा नहीं बल्कि बदलाव लाने का एक व्यवहारिक ढांचा है. ये अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मामले में एक ऐसा नज़रिया है, जो लैंगिकता, सत्ता और सुरक्षा के आपसी जुड़ाव को समझता है और इस बात पर ज़ोर देता है कि वास्तविक और स्थायी शांति तभी हासिल की जा सकती है, जब समाज के सभी वर्ग- ख़ास तौर से महिलाओं को वो औज़ार, स्थान और अपनी बात कहने के अवसर दिए जाएं, जिससे वो अपने भविष्य का निर्माण कर सकें. कश्मीर की महिलाओं के लिए ये दृष्टिकोण एक ऐसे भविष्य का वादा करता है, जिसमें वो सिर्फ़ हिंसा की शिकार नहीं, बल्कि एक न्यायोचित, शांतिपूर्ण और समतावादी समाज के निर्माण की सक्रिय भागीदार भी हैं. अब वक़्त आ गया है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय महिलाओं की इंसाफ और अमन की मांग पर तवज्जो दें और कश्मीर ही नहीं दुनिया के तमाम क्षेत्रों में संघर्ष के स्थायी समाधान तलाशने के प्रयासों में महिलावादी विदेश नीति को केंद्र बिंदु बनाएं.

(लेखिका तहमीना रिज़वी ब्लूक्राफ्ट डिजिटल फाउंडेशन में सीनियर फेलो और बेनेट यूनिवर्सिटी (टाइम्स ग्रुप) में पीएचडी स्कॉलर हैं। उनका शोध दक्षिण एशिया में महिलाओं, शांति और सुरक्षा (डब्ल्यूपीएस) पर केंद्रित है।आलेख साभार : ओआरएफ )

Author: Goa Samachar
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